मेरा कुछ वज़ूद था ।
मेरा कुछ वज़ूद था
एक वतन था
एक सोच था , रौनक थी
उदासी थी पर मेरी थी
अब बेवज़ूद बेवतन हूँ ।
कंकरीट की धरती में
जड़ें जाती नहीं
सिकुड़ जाती हैं
काँप जाती हैं।
मुश्किल है नयी
अंजानी धरती में
जमना बिन किसी माली के।
बस अब इतना ही है
कि अपनी जड़ें इकट्ठी कर
अपने ही दामन में
छिपाये घूमती हूँ ।
तलाश है उस 'वतन'
की जहाँ में फिर से खिल सकूँ
खोज है अपने अंदर
के वतन की जहाँ में
खुद को दफना सकूँ
फ़ना हो जाऊँ ।
सरहदों, बंधनो
सोचों, परिवेशों
के बाहर खुद
अपनी ही ज़मीन में ।
मेरा कुछ वज़ूद था
एक वतन था ।
मेरा कुछ वज़ूद था
एक वतन था
एक सोच था , रौनक थी
उदासी थी पर मेरी थी
अब बेवज़ूद बेवतन हूँ ।
कंकरीट की धरती में
जड़ें जाती नहीं
सिकुड़ जाती हैं
काँप जाती हैं।
मुश्किल है नयी
अंजानी धरती में
जमना बिन किसी माली के।
बस अब इतना ही है
कि अपनी जड़ें इकट्ठी कर
अपने ही दामन में
छिपाये घूमती हूँ ।
तलाश है उस 'वतन'
की जहाँ में फिर से खिल सकूँ
खोज है अपने अंदर
के वतन की जहाँ में
खुद को दफना सकूँ
फ़ना हो जाऊँ ।
सरहदों, बंधनो
सोचों, परिवेशों
के बाहर खुद
अपनी ही ज़मीन में ।
मेरा कुछ वज़ूद था
एक वतन था ।
1 comment:
विदेश की ज़मीन पर खड़े होकर कवियित्री को अपने वतन की याद किस तरह सताती है, वह पीड़ा बखूबी उकेर दी सुमेघा जी ने... बहुत सुंदर !
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