दिल से
बहुत कुछ चल रहा है देश में। बहुत कुछ कहने के लिए है मेरे पास भी पर समय उलझाए रखता है रोजमर्रा की भागदौड़ में ।
पर अब और नहीं डिले कर सकती इस पोस्ट को पोस्ट करने में। हिंदी में लिख रही हूँ क्योंकि ये भाव हिंदी में ही परवान चढ़ रहा है पिछले कई दिनों से। वो दोस्त जो हिंदी नहीं समझते है, फिलहाल माफ़ करयेगा , में इंग्लिश अनुवाद भी जल्द पोस्ट कर सकती हूँ ।
JNU में जो चल रहा हा उसके बारे में कुछ कमेंट करना उचित नहीं होगा क्योंकि देश से बाहर हूँ। और में नहीं चाहती की जो कहना चाहती हूँ वो ugly वाद-प्रतिवाद में उलझ कर दम तोड़ दे।
पर इतना जरूर है की तिरंगा, जनगणमन, और वन्दे मातरम किसी निज़ाम की मल्कियत नहीं हैं । अपनी बात करूँ तो मेरे लिए हिंदुस्तान, भारत, India मेरी पहचान है - एक सांस्कृतिक पहचान, more then just being a geo-political reality
ये एक ऐसी पहचान है जो आखिरी साँस तक रहेगी और जिसे बनने में जाने कितनी सदियाँ लगी है । मेरे लिए देश अपनापन है , बचपन की यादें और वहां बिताये जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव हैं । भारत मेरी माँ की जन्मभूमि है । विदेश में मेरे पैर भले ही हर तरह के संगीत पर थिरकते हो, मेरी जबान हर तरह का खाना चख चुकी है पर तृप्ति तो अपने यहाँ की दाल-रोटी (इडली-सांभर) में ही मिलती है । दिमाग कहीं भी घूमे पर दिल तो अपनी हिंदुस्तानी गलियों में बसता है।
बाहर, विदेश में धीरे-धीरे, परत दर परत अपनी पहचान के चिन्ह छूटे जाते हैं, जैसे की दिल्ली की बसें कभी सामने से निकल जातीं थीं । होली के रंग, दिवाली की मिठाइयां (including मिलावटी ) और भी अनगिनत त्यौहारों, की ना तो तारीख मालुम होती है , ना ही वो माहौल होता है की उन भूले-बिसरे रसों में अपने को भिगा लूं ।
बरसों से अपनी पहचान संजों के रखी है । हर जगह, हर मकाम पर अपनी अनोखी मिटटी की खुशबू की हिमायत की है । कितनी भी fairness cream लगा लूं पर रहूंगी brown ही, कितनी भी बढ़िया अंग्रेजी बोल लू पर रहूंगी देसी ही। और इस बात से मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है, कोई देसी भला विदेसी क्यों होना चाहेगा ???
तकलीफ़ हो रही है ये सुनकर, देखकर की देश के लोग देश के नाम पर एक दूसरे को माँ-बहन की गालियां दे रहें हें । पता नहीं कब हम बाप-भाई की गालियां ईज़ाद करेँगे , just kidding. JNU की घटनाओं को लेकर पर इतना घमासान चल रहा है की लगता है, किसी भंसाली की महफिल्म का महायुद्ध चल रहा हो।
मुझे असली देशद्रोह तो वो लगता है,जब खुले में नित्त्यकर्म करना हमारी आम महिलाओं की मज़बूरी है तो क्या दिल्ली हो या देहात के खेत-खलिहान । जगह जगह पड़े कूड़े के ढेर देशद्रोह के खुले प्रमाण हैं । मैंने भी जाने कितने कूड़ो के ढेरों को, कीचड़ भरी गलियों को टाप टाप कर अपनी जीवन नैय्या को खेया है । मेरी शिक्षा हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूल में हुई है। और जो values मुझे मेरे शिक्षकों से मिले, काले खुरदरे blackboard पर लिखी प्रेरक इबारतें ने जो छाप मेरी पहचान पर छोड़ी है, उसे न कोई मिटा पाया है ना मिटा सकेगा ।
मेरी नज़र में देशद्रोह तब होता है जब हमारे गरीबी-बीमारी के मारे लोग अपने घावों का प्रदर्शन करतें हैं, चन्द पैसों की भीख पाने की लिये हमारी सड़कों , हमारे धार्मिक स्थानो के बाहर ।
देशद्रोह तब हुआ था जब किसी totally different देश के लोग, अपने जहाजों में भर कर आये व्यापर करने के लिए पर पूरे देश को ही हतिया लिया हमारे लोगो का साथ पाकर। वो देशद्रोह (मानवता द्रोह ) था जब उन लोगों ने अपने लाल-नीले कलम चला कर हमारी मिटटी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । लाखों लोग एक विदेसी सरकार की नालायकी की वजह से बंटवारे में इक दूसरे को काटते चले गये और तब की अंग्रेज सरकार अपना बोरिया -बिस्तर बांध कर भागने में जुटी थी ।
हम क्यों नहीं जवाब मांगते उन अँगरेज़ सरकारों से, उनके वंशजो से जिन्होंने हमारी पहचान के साथ खुले-आम खिलबाड़ किया । उन्होंने हमारी मिटटी के हे टुकड़े नहीं किये बल्कि पहले से ही जात -पात से त्रस्त समाज को और भी categories में बाँट दिया ।
मेरी देश में आस्था मानवतावादी है । जो देशवासियों के लिए उचित है वो सम्पूर्ण मानवता के लिए भी उचित होना चाहिये सर्वेः संतु निरामयाः सर्वेः संतु सुखिनः की तर्ज़ पर ।
कई बार लगता हे, तमाशबीनी हम्हारी फ़ितरत में है । अभी कहीं देखा है एक बन्दर के हाथ-पैर बांध कर उसे भीड़ के बीच चोरी के अपराध की माफ़ी मंगवाई जा रही थी । एक आवारा (देसी ) कुत्ते को pole से बांध कर अधमरा किया जा रहा था, अगर विदेसी कुत्ता होता तो शायद raffle draw करना पड़ता क्योंकि हर कोई उसे अपनी बाँहों में झुलाना चाहता ।
और अब हम JNU प्रकरण को बीच में डालकर मजे ले रहे हैं जबकि हमारे आस-पास हमारे लोग, झंडा, गान सब कुछ होते हुए भी नरक से बदतर माहौल में रहते हैं और मिनिमम जरूरत से भी कम साधनो को लेकर जीते हैं ।
अगर गलती से, हाँ गलती से आप इनके दरवाज़ों पर जा पहुंचे तो ये लोग सामान्तया अपनी आखिरी और पूरी रोटी आपके हवाले कर देंगे। ना वो देशद्रोही हैं न मानवता द्रोही - वो तो बस आम हिंदुस्तानी हैं मेरी तरह ।
पता नहीं किसने क्या नारे लगाये , पर क्या देश कच्ची मिटटी का घड़ा है जो ऐसे नारों के कम्पन से चूर चूर हो जागेया । पता नहीं किस कोने कोने में देशद्रोही literature और भड़काऊं भाषणों की recordings भरी पड़ी है , मुझे लगता की देश जिसे सदिओं की विरासत प्राप्त है - ज्ञान, तप , भक्ति, सदभावना की वो ऐसी situationsको अपने न्यायसंगत, भयमुक्त system के तहत निबटाने की ताकत भी रखता ही होगा।
2 comments:
"पता नहीं किसने क्या नारे लगाये , पर क्या देश कच्ची मिटटी का घड़ा है जो ऐसे नारों के कम्पन से चूर चूर हो जायेगा!" (Pain of a writer)
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