2004
समर हिल मोहल्ला, सिडनी
सूखे बादल हैं ये लोग
बिन बरसे ही टंगे रहते हैं
तुम्हारे आस पास
तुम इनको छूते रहते हो बार बार
बादल हैं बरसना तो है ही
अब जब आ कर टंग गए
हैं मेरे सर पर
तो इनको तुम पर बरसने
का मोका तो देना ही होगा
तुम्हारे हाथ में तो इनकी लगाम नहीं
अब बरसे तो कब बरसे तुम्हारी बला से
तुम तो ये तुम्हारे पास हैं यही
जान कर तकते रहतो हो इनको
पर अगर तुम्हे मालूम होता की
सूखे बादल हैं ये लोग
तो तुम अपना बरसना थोडा लटका देते
बरसते तो लेकिन साथ साथ बरसते
इन्हें तुम्हारा चुपके से आना जाना
तुम्हारा हलके हलके बरसना
भी प्रेरित नहीं करता
तुम एक बूंद गिराओ तो उसको गटक लेंगे
बूंद से बूंद नहीं मिलायेंगे ये लोग
सूखे बादल हैं ये लोग
[काफी उकता चुकी थी विदेश प्रवास से,अधूरी मुलाकातों, अधूरी अधूरी जिंदगी से। यह कविता एक प्रतिकिर्या है उस दोरान मिले लोगों को लेकर । ]
©sumeghaagarwal
1 comment:
Kya imagery hai! Nai hai kya?
Raja
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