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Sunday, August 22, 2010

और वो मर गया

DATELINE
NEW DELHI
MANDI HOUSE  18th JANUARY 1992  

और वो मर गया

वो आता था तूफान की तरह, काले घोड़े पर सवार होकर, कभी टी-शर्ट पहन कर कभी बाबुनुमा शर्ट पहन कर.

बहुत बार आता था वो. हर बार ये कहकर की गुजर रहा था सोचा मिल लूं. वो कहती थी क्यों रोज-रोज मिलने चले आते हो - मुझे और भी बहुत काम हैं करने को. मुझे कभी अकेला भी छोड़ दिया करो.

वो छोड़ गया उसे अकेला. दे गया उसे भगवान, मोम की नैनीताल में बना एक शिवजी का स्वरुप. और दे गया गुरखाओं वाली एक छोटी सी खुकरी, लकड़ी के केस में छिपी. ये कह कर, जब कभी मुझ पर गुस्सा आये तो इसे इस्तेमाल करना. मार देना इसे किसी गद्दे तकिये में. में तो बच जाऊँगा.

वो नहीं बचा. काले घोड़े ने उसे कहीं का न छोड़ा. जीने-मरने की कसमें खाई थी उस घोड़े ने. पर जब तक वो जीवन से अटखेलियाँ  खेल रहा था, काले घोड़े ने उसका साथ दिया. मरते वकत वो अकेला था- काला घोडा थोडा टूटा कुछ फूटा, पर न रोया न हंसा. 

वो और दिन-षण की तरह उस दिन भी पूरी रवानी में था. दोस्त पीछे बैठा था तो भरपूर मस्ती में था.

रात में हवाखोरी कर के दिल्ली की सड़को पर, अपने घर नॉएडा वापस जा रहा था. अपनी छोटी सी प्यारी सी दुल्हनिया के पास . 

पर उस ट्रक में खुक्रियाँ नहीं लदी थी, न और कुछ था. थी लोहे की सलाखें ट्रक का पेट चीरकर बहार निकलती हुईं. ट्रक को इन सलाखों ने सता ही रखा था. उन्होंने सीधे उसके शरीर में घुसकर उसको तहस-नहस कर दिया, ऐसा की डॉक्टर उसकी मरमत्त नहीं कर पाए. 

और वो मर गया. वो अकेला मर गया. बहुत तडपा वो, रोया भी. पर जब देखा की जिंदगी की बाज़ी हार चुका है वो हंसा था बहुत जोर से. 

हाँ ऐसा ही हुआ था. मेरे कानों तक उसकी हंसी पहुची थी. मेरे कान खुले थे. मैंने उन्हें साफ़ जो किया था. उसी ने कहा था की माचिस की तीलियाँ कान में मत डाला कर, बहरी हो जाएगी.

अरे ओ वो. में तो मरी नहीं थी. मुझे जरासा तो बता देता की तू जाना चाहता  था. तुने ही दी थी वो खुकरी जो इस्तेमाल न होने के कारन पड़ी-पड़ी जंग खा रही थी.

मेरे पास तो आता तू. मुझे गुस्सा दिलाता. इतना गुस्सा की वो खुकरी मेरे हाथ से निकल कर तेरे दिल में उतर जाती, पूरे दिल को घेर लेती. रत्ती पर जगह न छोडती और किसी  के लिए. पर वो था, शादी क्या कर ली इस अनगढ़, अबूझ समाज के फेर में आके, वो मुझे भुलाने की कोशिश में लगा था.

उसकी कोशिश कुछ हद तक कामयाब भी रही. वो मुझसे दूर हो चला था. पहले हर रोज मिलता था, फिर कभी-कभी, फिर गाहे-बगाहे, फिर  ईद के चाँद की तरह.

ओ ईद के चान्द कम से कम ईदी तो दे जाता. सिवैयां तो खिला जाता अपने काले घोड़े की पीठ पर बिठाकर.

जाना था तो कहकर जाता. फ़ोन कर दिया होता. अपने किसी और दोस्त से कहलवा दिया होता. पर उसे फुरसत नहीं थी ये सब जहमत करने की.

उसे तो जाने की जल्दी थी. बहुत जल्दी थी. फुल स्पीड पर चला रहा था काले घोड़े को. घोड़े को मेरी बात याद थी, वो ठिटका भी था अपनी गति थामने की कोशिश भी की थी उसने. पर उस घोड़े को पता था की उसकी पीठ पर उसके पीछे में कहाँ बैठी थी. मुझे तो उसने बहुत पहले मण्डी हॉउस के मोड़ पर धकिया दिया था.

तू चला गया, तेरी मर्जी थी. पर तू भूल जा अपने सपने को की तुझे जल्द आके मिलूंगी उधर. अभी मुझे बहुत काम हैं. मुझे फुर्सत कहाँ है.

और वो सर झुका के चल दिया फिर उधर हवाखोरी करने को काले घोड़े पर सवार होकर. तलाश में किसी घर की, किसी हमसफ़र की.

वो मर गया था लेकिन वो मरा नहीं है.

©sumeghaagarwal

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